Cobbler's Story
Cobbler's Story  Syed Dabeer Hussain - RE
मध्य प्रदेश

कैसे बना 10वी फेल मोची न केवल एक सफल पत्रकार बल्कि सांपादक भी

Author : Vivvan Tiwari

राज एक्सप्रेस। आज हम एक ऐसे व्यक्ति की कहानी पर बात करेंगे, जिसको सुनकर आपको आर्श्चय होगा शायद आप भरोसा भी न कर सके परन्तु यह एक सच्ची कहानी है। यह कहानी एक जूते सिलने वाले व्यक्ति की। जो, एक सफल सांपादक है और उसकी प्रति माह 3000 से ज्यादा प्रतियां बिकती है। उसके बाद भी वे एक मोची है।

भोपाल की सच्ची कहानी :

यह कहानी भोपाल में स्थित प्रोफेसर कॉलोनी के एक जूते-चप्पल सही करने वाले सुरेश नांदमेहर नाम के एक मोची की। जो पेशे से तो एक मोची है, लेकिन उन्हें पत्रकारिता का शौक है। आपको सुन कर काफी अजीब लगा होगा, लेकिन अपने इसी शौक के चलते सुरेश नांदमेहर आज एक मोची का काम करते हुए भी न केवल एक पत्रकार है बल्कि एक सांपादक भी हैं। यह सुन कर आपके मन में यह ख्याल आया होगा कि, उन्होंने इसके लिए मोची का काम करते हुए पत्रकारिता की पढ़ाई की होगी। परन्तु ऐसा कुछ नहीं है। आपको बताते चले कि, सुरेश नांदमेहर 10वी पास नहीं है, पत्रकारिता की पढ़ाई करना तो बहुत दूर की बात है। आपके मन में अब यह ख्याल आ रहा होगा कि, एक मोची एक सफल पत्रकार बना कैसे ?

गांव से आकर सीखा काम:

हरदा जिले के एक गांव से 1989 में एक व्यक्ति अपना जीवन यापन करने के लिए भोपाल आता है भोपाल आकर वह अपने चाचा से जूते-चप्पल सिलने का काम सीखता है। 1989 के दशक में बेरोजगारी चरम पर थी, लोगो में साक्षरता की कमी थी। लोग क़ुदसे ज्यादा पड़ना नहीं चाहते थे। अगर कोई पड़ भी लेता तो, नौकरी नहीं लगती थी। यह एक बड़ी वजह थी, कि लोग छोटी जगहों से बड़े बड़े शहरों में अपना पलायन करने के लिए आया करते थे। उन्ही लोगो में एक सुरेश नांदमेहर भी थे। वहा आकर उन्हने काम सीखा। काम सीखते ही उन्होंने जूते चपल सुधरने की एक शॉप दाल ली।

टुटा दुःख का पहाड़:

1998 के आसपास भोपाल नगर निगम ने इस मोची को इसके साथ ही कुछ और मोचियों की दुकान हटवा दी। इस दुःख के केहर से उबार पाना मुश्कल ही नहीं नामुमकिन था। इस दुःख के समय में सभी मोचियों के एक संघ ने आपस में परामर्श की और अपने हक की लड़ाई करने का फैसला लिया। उन्होंने हड़ताल करने का फैसला किया। उन्होंने मिलकर 27 दिनों तक 400 से 500 की भीड़ में रोशनपुरा चौराहे पर हड़ताल भी की। इसके बाबजूद भी कुछ नहीं हुआ। इसकी मुख्य वजह यह थी कि, इन 27 दिनों तक हुई हड़ताल की आवाज को मिडिया ने सही तरह से शासन तक पहुंचाया ही नहीं। इसके बाद लोगों ने बोला नेतागिरी करलो तो कुछ हो जाये। लेकिन उस एक मोची को यह लग रहा था कि इन सब की आवाज को सही तरीके से ईमानदारी के साथ शासन तक पहुांचाया ही नहीं जा रहा है।

कैसे बना सफल संपादक :

उसी समय उस मोची ने सोच लिया मेरे साथ हुए इस शोषण को किसी और के साथ दोहराने नही दूंगा। इसके लिए मैं लोगों की आवाज बनूँगा। में एक पत्रकार बनूँगा। आर्थिकता से जूझ रहे इस व्यक्ति ने यह ठान लिया कि कैसे भी कर कर एक अखबार निकाल लूंगा। इसी सोच के उद्भव से पत्रिका की शुरुआत ही गई। यह वही सुरेश नांदमेहर नाम के मोची थे। 2003 में उन्होंने बाल की खाल नमक एक अखबार बनाया और निरंतर समाज को सुंदरने के लिए लिखते रहे।

उन्होंने लिखने की शुरुआत खुद के अकेले ग्राउांड रिपोर्टिंग से की। सबकुछ अकेले करना मुश्किल था लेकिन वो कर रहे थे। आज एक दौर ऐसा है उनकी तीन हजार से ज्यादा प्रतिया हर माह बिकती है। इसके बाबजूद भी वह आज एक मिडिल क्लास फैमली से निचे का जीवन यापन कर रहे है। उनके आज भी मिडिल क्लास फैमली से निचे का जीवन यापन करने की वजह ये है कि,वे पूरे दिन पत्रकारिता का काम और सिर्फ 2 से 3 घंटे मोची का काम करते, ताकि अगले दिन पत्रकारिता में होने वाले खर्चे के लिए पैसे जुटा सके। साथ ही कुछ पैसो से अपने परिवार को चला सके।

सुरेश नांदमेहर का परिवार :

सुरेश नांदमेहर के चार बचे है उन्होंने एक बेटी की शादी करदी है और एक बेटा सिविल इंजिनयरिंग की पढाई कर चूका है। अभी बेरोजगार है और दो बच्चे पढ़ाई कर रहे है। इन सि का खर्च यह अकेले दो- दिन घंटे मोची का काम करके उठा लेते है। यह सबकुछ कितना कठिन है पड़ने के बाद इस बात का विशवास कर पाना भी मुश्किल है। आप भले इसे झूठ ही मानिये, लेकिन अगर सच देखना चाहते है, तो एक बार उस जमीन से जुड़े पत्रकार से जरूर मिलिए। जो, 7:00 से 12:00 के बिच एक साधारण सा मोची है और सुबह से शाम के 7:00 बजे तक एक पत्रकार है।

उपलब्धिया :

इन्ही पत्रकार साहब ने कई छोटी- बड़ी उपलब्धिया पाई है। बड़ी उपलब्धियों में उन्होंने 2010 में सिटीजन जर्नलिस्ट का अवार्ड पाया। इसी के अलावा 2012 में इंडिया पॉजिटिव अवॉड से अनिल कुंबले जी ने सुरेश नांद मेहर को सम्मानित किया।

उनके कार्य की अलग सफल कहानी :

उन्होंने अपने पत्रकारिता के जीवन में समाज सेवा करते हुए एक सबसे बड़ी सेवा यह की, हरदा जिले में एक दलित किसान के परिवार के 12 एकड़ की जमीन पर कब्ज़ा कर लिया गया था। उस पूरी जमीन को कब्जे से बहार करवा कर सुरेश जी ने दलितों को दिलवाया। समाज सुधर के लिए यह छोटे-बड़े काम करते ही रहते है।

सलाम है, इस व्यक्ति को इनकी सफल पत्र्कारिता को और इनके हौसले को।

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