फोन की लत Social Media
राज ख़ास

रिश्तों के टूटने की सबसे बड़ी वजह 'फोन की लत(Phone Addiction)' लग जाना है

रिश्तों की अहमियत सिर्फ सोशल साइट तक ही रह गई है। प्रभाव इतने घातक हैं कि रिश्तों में दूरियां बढ़ रही हैं। इससे केवल युवा पीढ़ी ही नहीं बड़े उम्र के लोगों की जिंदगी भी खतरे में है।

Author : राज एक्सप्रेस

यह वाकई एक कटु सत्य है कि मौजूदा समय में हर कोई अपनी वर्चुअल दुनिया में इतना व्यस्त है कि साथ में कौन बैठा है, इसकी भी खबर नहीं रहती। घर-दफ्तर की व्यस्तता से लेकर यात्रा की सहजता तक। संवाद की कड़ी टूट गई है। बातचीत का पुल अब न तो अपनों के बीच बचा है और न ही अपरिचितों के साथ बनाने की कोशिश की जाती है। स्मार्ट गैजेट्स की स्क्रीन पर टकटकी लगाकर पाली गई यह व्यस्तता औरों के लिए ही नहीं खुद अपने लिए भी समय नहीं दे पा रही है। नि:संदेह आशा भोंसले का यह हालिया ट्वीट आभासी दुनिया में खोई आज की जीवनशैली के प्रति सचेत करने वाला है। साथ होकर भी संवाद के गुम होने की स्थितियों के प्रति पीड़ा जाहिर करने वाली गंभीर बात है, जिसे लेकर गंभीरता से सोचा जाना अब जरूरी है क्योंकि इस वर्चुअल दुनिया में आज हर उम्र, हर वर्ग के लोग व्यस्त हैं।

एक शोध के मुताबिक, स्मार्टफोन की लत से आमने सामने बैठकर बात करने में दिक्कत होने लगती है। इसीलिए शोधकर्ताओं का कहना है कि तकनीक हमारे जीवन को आसान बनाने और मदद करने के लिए है, लेकिन हम तकनीक को ही जीवन का केंद्र बनाने लगे हैं। दरअसल, स्क्रीन की टकटकी में कितना कुछ रीत रहा है, इससे कोई बेखबर नहीं है, लेकिन सब कुछ जानते समझते हुए भी जरूरत के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले स्मार्ट गैजेट्स को लोगों ने लत बना लिया है। विचारणीय यह है कि आपसी संवाद का आधार होता है कुछ जानने की चाह और कुछ साझा करने की इच्छा लेकिन अब तो ये दोनों ही बातें सर्च और अपडेट्स तक सिमट कर रह गई हैं। सवालों के जवाब खोजने के लिए इंटरनेट पर सर्च कर लिया और अगर साझा करने की सूझी तो इसी आभासी दुनिया में अपडेट कर जाने अनजाने चेहरों तक अपनी बात पहुंचा दी जाती है। इसी का नतीजा है कि तकरीबन हर उम्र के लोगों की जिंदगी सिर्फ स्क्रीन में झांकने तक ही सिमटकर रह गई है।

इस व्यवहारगत बदलाव ने संवाद की कडिय़ां भी तोड़ कर रख दी हैं। अब न कुछ कहना जरूरी लगता है और न ही किसी के मन की सुनना जबकि मानवीय जीवन का आधार तो आपसी संवाद ही है। सह- अस्तित्व के भाव की सबसे मजबूत कड़ी भी सम्प्रेषण को ही माना जाता है। विचारणीय यह है कि आज भले ही स्मार्ट गैजेट्स हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं मगर मशीनें इंसानी संवाद की जगह नहीं ले सकतीं। तभी तो आज के सफल, सजग और टेनोट्रेंड लोगों की एक बड़ी आबादी भीतर के खालीपन से जूझने के लिए मजबूर है। वर्चुअल माध्यमों के जरिये बाहरी दुनिया से जुडऩे की जद्दोजहद और बेवजह के आभासी संवाद के चलते अधिकतर लोग आत्मकेंद्रित और अकेलेपन को ही जी रहे हैं। आभासी संसार की दिखावटी दोस्ती और अनर्गल संवाद ने व्यावहारिक हालात इतने विकट कर दिए हैं कि हजारों से बतियाने और पल पल की बात साझा करने वालों के पास असल में मन की पीड़ा साझा करने वाला कोई नहीं है। जबकि सच यह है कि अजब गजब सी वर्चुअल भीड़ से घिरे लोग अब अपनों से ही दूर हो रहे हैं।

नतीजतन सबके बीच रहने और जीने के बावजूद भी सूनेपन की त्रासदी सभी के हिस्से आ रही है। स्मार्ट गैजेट्स की बदौलत मिला यह अकेलापन दिखाई तो नहीं देता पर भीतर से बहुत कुछ बिखेर रहा है। कहना गलत नहीं होगा कि अंतरजाल की दुनिया कहने को तो सबको करीब ले आई है पर अब असली जुड़ाव का अर्थ ही खो गया है। नि:संदेह, स्मार्ट गैजेट्स और आभासी रिश्तों के इस दौर में संवादहीनता बढ़ी है। सामाजिकता का दायरा तो मानों खत्म ही होता जा रहा है। हमारा सामाजिक तानाबाना इस तकनीकी जुड़ाव के चलते कुछ ऐसे बदलावों से गुजर रहा है कि तनाव और उलझनें अब हर उम्र के लोगों के हिस्से आ रही हैं। ऐसा होना लाजिमी भी है क्योंकि तनाव, अवसाद और मन की उलझनों का हल अपनों के साथ किया गया संवाद ही है। अब बातचीत का यह सेतु साथ होकर भी हमें नहीं जोड़ता। कुल मिलाकर, निर्भरता की सीमा के पार तकनीक पर निर्भरता। जिसका नतीजा है दुनिया भर से जुडक़र स्वयं में खोये रहना और अपनों से दूर हो जाना।

हरदम स्मार्ट गैजेट्स में खोये रहने का ही परिणाम है कि सबसे जुडऩे के साधन और माध्यम जितने बढ़े हैं, उतना ही हम अपने आप से और अपनों से दूर हो गए हैं। यही आज के यंत्रवत हो चले जीवन का कड़वा सच है। वैज्ञानिक उपलब्धियों से भरे इस दौर में घर हो या दफ्तर मशीनों की सहायता के चलते हर काम में लगने वाला समय कम जरूर हुआ है। फिर भी आपाधापी ऐसी कि सभी की दिनचर्या और अधिक व्यस्त प्रतीत होती है। लेकिन यह व्यस्तता आभासी अधिक है। स्मार्ट गैजेट्स के चलते अब हथेली में एक ऐसा संसार समाया हुआ है कि हर कोई हरदम मसरूर ही नजर आता है। चिंतनीय है कि तकनीक की प्रगति से अलग भी कई सारे पहलू हैं इस यांत्रिक निर्भरता और व्यस्तता के। इस कड़ी में आपसी संवाद का गुम होना एक अहम् दुष्परिणाम है।

साइकोलॉजिस्ट की मानें तो एक इंसान लगभग आठ घंटे फोन पर रहता है। उनके अंदर वर्चुअल और सोशल लाइफ इतनी भर गई है कि वह जिंदगी के वास्तविक रिश्ते को दखल मानने लगा है। यही वजह है कि आज इंसान के रिश्तों में भावनात्मक दूरियां बढ़ रही हैं। यह समस्या किसी एक या दो कपल में नहीं बल्कि कहीं न कहीं हर तीसरा इंसान इससे परेशान है। साइकोलॉजिस्ट का मानना है कि रिश्तों के टूटने वजह है कि लोगों को फोन की लत लग जाना। एक ऐसी स्थिति भी आती है जब फोन को रख भी दिया जाये तो कहीं न कहीं दिमाग में वही चलता रहता है और हाथ खुद फोन की तरफ पहुंच जाता है। यह स्थिति बेहद खतरनाक होती है और इसके चलते इंसान रिश्तों को तवज्जो नहीं दे पाता है। दिनभर की थकान के बाद वह सुकून भी अपने फोन के गेम व सोशल साइट्स पर खोजता है और बहुत हद तक उसकी यह तलाश पूरी भी होती है लेकिन इसके चलते रिश्तों में जरूर तनाव आ जाता है।

इस समस्या से केवल युवा ही नहीं बल्कि बड़ी उम्र के लोग भी परेशान हैं। केवल मेल ही नहीं फीमेल भी स्मार्टफोन और सोशल साइट्स की लत से परेशान हैं। यह लत हमारे समाज के लिए चिंता का सबब है क्योंकि इस लत से रिश्ते बिखर रहें है। इस लत के चलते लोगों की भावनाएं इस प्रकार खत्म हो रही हैं कि लोगों की ऑपोजिट सेक्स को लेकर आकर्षण भी खत्म हो रहा है। इमोशंस को जन्म देने वाले हार्मोन्स की मात्रा कम हो रही है। लोगों को ज्यादातर समय फोन पर बीत रहा है। इससे रिश्ते टूट रहे हैं और लोग भटक रहे हैं। पास बैठकर बात करने के बजाय लोग फोन पर व्यस्त रहते हैं और मैसेज से बात करना ज्यादा पसंद कर रहे हैं।

किसी भी चीज का आविष्कार अगर हमारे फायदे के लिए होता है तो सही है, मगर वह हमारी सोच और रहन-सहन को प्रभावित कर रहा है, तो उसे कतई सही नहीं माना जाना चाहिए। स्मार्टफोन के जरिए हम पूरी दुनिया को वाकई अपनी मुट्ठी में कर लें, मगर रिश्तों की अहमियत को लगातार खोते जा रहे हैं, इस बात पर भी विचार करना होगा, वरना हम अपनों से दूर होते जाएंगे।

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