महाभारत कालीन से जुड़ा है नर्मदा तट के आंवली घाट का रहस्य

होशंगाबाद, मध्यप्रदेश : आज नर्मदा जयंती है, इस अवसर पर सिवनीमालवा के आंवलीघाट की धार्मिक मान्यता महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
सिवनीमालवा के आंवलीघाट की धार्मिक मान्यता
सिवनीमालवा के आंवलीघाट की धार्मिक मान्यताSudha Choubey - RE
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राज एक्सप्रेस। आज नर्मदा जयंती है जहां मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के सिवनीमालवा क्षेत्र में स्थित आंवलीघाट का आध्यात्मिक दृष्टि से खासा धार्मिक महत्व है। इसी मान्यता के चलते यहां प्रति माह अमावस्या एवं पूर्णिमा पर हजारों की तादात में दूर-दूर से लोग पवित्र नर्मदा में डुबकी लगाने पहुंचते हैं। यहां पर हत्याहरणी हथेड नदी एवं नर्मदा का संगम स्थल हैं। इस कारण इसका महत्व अधिक है। ऐसी मान्यता है कि यहां वर्ष में दो बार गंगा दशमी एवं आंवला नवमीं पर प्रति वर्ष भीम नर्मदा नदी में स्नान करने आते हैं। इन तिथियों के आसपास यहां नदी के पास रेत में भीम के पैरों के निशान भी देखने को मिलते हैं। आंवलीघाट पर उत्तर की ओर ब्रम्हयोनी हैं इसमें से होकर निकलने पर मन की सभी मुरादें पूरी होती हैं।

कई प्राचीन मंदिर और धर्मशालाएं हैं स्थित :

बता दें कि, उत्तर तट पर ही मां नर्मदा के प्राचीन मंदिर हैं, जिसमें दक्षिण तट पर प्राचीन नर्मदा मंदिर, धुनीवाले बाबा खंडवा का समाधि स्थल, भगवान शंकर का मंदिर, हनुमान मंदिर एवं अनेक धर्मशालाएं हैं। यहां सबसे प्राचीन नर्मदा मंदिर हैं। आंवली घाट से दो किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा में ग्राम ग्वाडी हैं। यहां भावनाथ बाबा की पहाड़ी है। यहां सैंकड़ों वर्ष पुराना श्री नागेश्वर मंदिर के पाषाण शिलाखंड भी मौजूद हैं। आंवली घाट पर श्री धुनीवाले दरबार के पास एक भव्य शंकर मंदिर में भगवान शंकर एवं शिवलिंग प्रतिमा स्थापित हैं।

कई प्राचीन मंदिर और धर्मशालाएं है स्थित
कई प्राचीन मंदिर और धर्मशालाएं है स्थित Shashikant Sharma

यह है पौराणिक महत्व :

बता दें कि, आंवली घाट पर लक्ष्मीकुंड, ब्रम्हपास भावनाथ बाबा की टेकरी आदि दर्शनीय स्थल और पौराणिक महत्व के स्थान हैं। नर्मदा के इस पवित्र घाट को लेकर पुराणों में अनेक किवदंतियां मिलती हैं। ऐसा माना जाता है कि, आंवली घाट महाभारत युग में पांडवों की तपस्या स्थली था तथा वनवास के समय उनका निवास यहीं पर था। ऐसी किवदंती है कि महाभारत युग में भीम द्वारा नर्मदा नदी का जल प्रवाह रोकने के लिए जो चट्टानें यहां नर्मदा में डाली थीं, वह आज भी वहीं जमीं हैं। किवदंती के अनुसार ही लक्ष्मीजी रथ पर सवार होकर यहां कुंती से मिलने आईं थीं। उस रथ के चाक के निशान आज भी पत्थरों पर दिखाई देते हैं।

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