बच्चों और युवाओं में स्क्रीन की लत
बच्चों और युवाओं में स्क्रीन की लतसांकेतिक चित्र

बच्चों और युवाओं में स्क्रीन की लत, जरूरत से निर्भरता और अब समस्या

करीब 65 फीसदी बच्चे शारीरिक जबकि 70 फीसदी बच्चे स्क्रीन की लत के चलते किसी ना किसी मानसिक समस्या से जूझ रहे हैं। युवाओं की स्क्रीन संबधी लत के आंकड़े भी कुछ ऐसी ही कहानी बयां कर रहे हैं।

राज एक्सप्रेस। कोरोना के चलते साल 2020 में लगे पहले लॉकडाउन के बाद जयपुर के जे के लोन हॉस्पिटल के बाल रोग चिकित्सा विभाग ने राजस्थान के 13 शहरों समेत देश के 20 शहरों में बच्चों की स्मार्टफोन संबधी आदतों और लत को लेकर एक स्टडी की थी, जिसमें पाया गया कि देशभर के 71 फीसदी से ज्यादा बच्चे ऑनलाइन गैमिंग और क्लास की वजह से जिद्दी, मोटे, मूडी और लापरवाह हो गए हैं। इस स्टडी में यह गंभीर बात भी निकलकर आई थी कि करीब 65 फीसदी बच्चे शारीरिक जबकि 70 फीसदी बच्चे स्क्रीन की लत के चलते किसी ना किसी मानसिक समस्या से जूझ रहे हैं। युवाओं की स्क्रीन संबधी लत के आंकड़ें भी कुछ ऐसी ही कहानी बयां कर रहे हैं। लिखते हुए दुख है कि इन दो सालों में यह स्थिति और ज्यादा गंभीर हो गई है। हालात यह है कि अब इसे डिजिटल एडिक्शन कहा जा रहा है, जिसके चलते कई शारीरिक और मानसिक बीमारियां हो पैदा हो रहीं हैं।

डब्लयूएचओ अब स्क्रीन और डिजीटल एडिक्शन को बीमारी के तौर पर अपनी लिस्ट में शामिल करने की तैयारी कर रहा है। यानि सार यह कि कोरोना महामारी तो विदा हो गई लेकिन इन दो सालों में हमने अपने युवाओं और बच्चों के लिए एक नई महामारी पैदा कर ली। पेंडमिक के दौर में घरों में कैद युवाओं और बच्चों के लिए स्क्रीन ही सहारा था, अब महामारी तो जाने को है, लेकिन स्क्रीन की लत से पीछा छुड़ाना कठिन हो गया है। पहले स्क्रीन और इंटरनेट हमारी जरूरत बने फिर हम उन पर निर्भर हुए और अब यह एडिक्शन बन गए हैं। यकीन ना आता हो तो आंकड़े देखिये। पिछले 15 सालों में सोशल मीडिया और इंटरनेट की लत को लेकर करीब 50 शोध हुए हैं, जिनके आधार पर सिडनी यूनिर्वसिटी ऑफ टेक्निोलॉजी ने स्क्रीन और नेट की लत के 4 दर्जन से ज्यादा नुकसान गिनाए हैं। इधर हमारे युवा प्रतिदिन 5-6 घंटे तो बच्चे 4-8 घंटे स्क्रीन के सामने बिता रहे हैं। इसका नतीजा यह है कि इस आभासी दुनिया की वजह से युवा और बच्चे तेजी से अवसाद के शिकार हो रहे हैं।

नोमोफोबिया, सोशल मीडिया डिसऑर्डर और सायबर सिकनेस उन बीमारियों के नाम हैं, जो आपने पहले कभी नहीं सुनी होंगी। भारत में इस समय वाट्सएप के 40 करोड़ से ज्यादा, फेसबुक के 20 से 30 करोड़ तो इंस्टा के यूजर्स 9 करोड़ के करीब हैं। इनमें ऑनलाइन गेंम और मूवी देखने वालों के आंकडे जोड़ दिए जाएं तो यह फिगर और बड़ा हो जाता है। इसलिये हैरत नहीं कि हमारे 26.9 प्रतिशत बच्चे चिड़चिड़ेपन के और 22.4 फीसदी से ज्यादा बच्चे आंखों की बीमारियों के शिकार हो गए हैं। 23 प्रतिशत बच्चों का वजन बढ़ गया है तो 20 फीसदी बच्चे दिनभर थकान महसूस कर रहे हैं। इतना ही नहीं 25 फीसदी से ज्यादा बच्चे लापरवाह और जिद्दी हो गए हैं। 6.50 प्रतिशत बच्चे नींद ना आने की समस्या से जूझ रहे हैं। लॉकडाउन और उसके बाद ही अवधि में बच्चों और युवाओं की निर्भरता स्मार्टफोन पर लत तक पहुंच गई है। वैज्ञानिकों ने फोन की लत को ड्रग्स की तरह ही घातक लत माना है। पिछले एक साल में साइबर क्राइम और बुलिंग के बढ़ते आंकड़े भी इसकी गवाही दे रहे हैं। यानि युवा तो ठीक हमारे बच्चे भी साइबर क्राइम के टूल बन रहे हैं। पिछले महीनों में एमपी ही नहीं देश के कई हिस्सों में बच्चों की आत्महत्या के मामलों ने पुलिस ही नहीं समाज शास्त्रीयों और मनसविदों को चौंकाया है। बच्चे मां-बाप से झूठ बोलकर उनके खाते साफ कर रहे हैं। यानि इस लत का सबसे बुरा असर हमारे बच्चों यानि देश की आने वाली पीढ़ी पर पड़ रहा है। कोरोना के बाद के दौर में बड़ी संख्या में पैरेंट अपने बच्चों को लेकर मनोचिकित्सकों और सकरारी हेल्प लाइनों पर संपर्क कर रहे हैं। लेकिन यह आंकड़े साफ बता रहे हैं, कि स्थिति हर दिन गंभीर होती चली जा रही है। यह आने वाले बड़े संकट के लिए खतरे की घंटी है।

समय रहते जागिये :

स्क्रीन की लत की गंभीर होती स्थित सोचने को मजबूर करती है कि क्या हर सुविधा को समस्या बना लेना इंसान का स्वभाव है। जानकार कहते हैं, कि अगर आप या आपके बच्चे एक बार फोन उठाने के बाद खुद को रोक नहीं पाते। आधे घंटे भी अपने फोन से दूर नहीं रह पाते। नींद में भी आपको फाने की घंटी सुनाई देती है या फिर बार-बार बिना कारण फोन को चैक करते रहते हैं, तो सावधान हो जाएं क्यों कि यह सभी लक्षण डिजिटल एडिक्शन के हैं। यानि आप स्क्रीन और इंटरनेट की लत के शिकार होने लगे हैं। बच्चों के साथ यह समस्या इसलिये भी गंभीर है क्यों कि वे अभी ना समझ हैं, वहीं गंभीर मुद्दा यह भी है, कि नेट के माध्यम से उनके सामने पूरी दुनिया खुली हुई है यानि नेट पर कोई सेंसर नहीं है। ऐसे में बच्चे कम उम्र में उन चीजों को भी देख रहे हैं, जिन्हें देखने की उनकी अभी उम्र नहीं है। समाजशास्त्री और मनोचिकित्सक दोनों इस बात पर सहमत हैं कि बच्चों के हाथ में फोन देकर हम बड़ी गलती कर चुके हैं। क्यों युवाओं में तो फिर भी थोड़ी समझ है, बच्चों में वह भी नहीं। इसे लापरवाही कहें या फिर जिम्मेदारी से बचना लेकिन अपनी समस्या टालने के लिए मां-बाप ने ही बच्चों के हाथ में फोन थमा दिए। अब उनसे वापस लेना मुश्किल हो रहा है। हमें यह समझना होगा कि यह समस्या बहुत गंभीर है और समय रहते हमने ध्यान नहीं दिया तो यह हमारी आने वाले पीढ़ी को पूरी तरह तबाह कर देगी। डांटना, पीटना और चिल्लाना इस समस्या का हल नहीं है। युवाओं और बच्चों को बहुत सूझबूझ और समझदारी से टेकिल करने की जरूरत है वर्ना नतीजे उल्टे भी हो सकते हैं। हमारी संवादहीनता और एकल परिवारों ने इस स्थिति को भयावह बना दिया है। लेकिन यह रूककर सोचने का समय है, समय रहते अगर हम नहीं जागे तो नतीजे और गंभीर हो सकते हैं।

हमें ही निकालना होगा रास्ता :

यह समस्या हमने ही पैदा की है, तो जाहिर है रास्ता भी हमें ही निकालना होगा। इसके लिए माता-पिता को भावनात्मक और तकनीकी दोनों ही स्तरों पर समझदारी दिखानी होगी। शायद आपको यह अहसास ना हो कि हमारे बच्चे एक नकली और आभासी दुनिया में जी रहे हैं और असल दुनिया से उनका संपर्क तेजी से खत्म हो रहा है। सोशल मीडिया और इंटनेट या ऑनलाइन गेमिंग सिर्फ मनोरंजन के अड्डे नहीं हैं, इन पर खतरे भी बहुत ज्यादा हैं। जिन्हें हम आए दिन आए दिन समाचारों के माध्यम से पढ़, सुन और देख ही रहे हैं। लेकिन इस स्थिति को बदलना जरूरी है। इसके लिए सबसे पहले मां-बाप अपने युवा या छोटे बच्चों से भावनात्मक रूप से जुड़ें। उनसें लगातार बातचीत करते रहें। उन्हें पारिवार के साथ बैठने और समय बिताने के लिए प्रेरित करें। कुछ समय बाहर खेल-कूद के लिए भेजें। जासूसी करने की जगह ऐसा रिश्ता बनाने की कोशिश करें कि बच्चे कोई गलती करें तो आपको बताने में उन्हें झिझक ना हो। इस भावनात्म पक्ष के साथ ही तकनीकी पहलू समझें। अपने फोन पर पैरेंटल लॉक का इस्तेमाल करें, जिस फोन से आपका बैंक खाता कनेक्ट है, वह बच्चों को ना दें और उन्हें साइबर गाइडलाइन की जानकारी भी जरूर दें। हम थोड़ी से जागरूकता दिखाएं तो संभव है कि हमारी अगली पीढ़ी सुरक्षित हो जाए।

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